अरे, यह तो मेरे ध्यान में था ही नहीं

मैंने इसी साल अपने चिट्ठे पर ‘बुलबुल मारने पर दोष लगता है’ श्रृंखला लिखी है। यह श्रृंखला , ‘To Kill A Mockingbird’ उपन्यास के बारे में थी। इसे हार्पर ली (Harper Lee) ने लिखा है। यह उपन्यास  २०वीं शताब्दी के उत्कृष्ट अमेरिकन साहित्य में गिना जाता है। बाद में, इस पर इसी नाम से एक फिल्म भी बनी है। यह मेरी प्रिय पुस्तकों में है। इस पर बनी फिल्म भी, मैंने १९६० के दशक में देखी थी।

इस श्रृंखला में चर्चा थी कि यह उपन्यास क्यों लिखा गया , इसकी क्या कहानी थी, इसकी क्या शिक्षा है।

इस श्रंखला के लिखने के कई कारण थे। जिसके बारे में मैंने श्रंखला में जिक्र किया है। लेकिन यह साल इस श्रृंखला के लिये उसी तरह से महत्वपूर्ण है जैसे कि पिछला साल डार्विन की श्रृंखला के लिये महत्वपूर्ण था। लेकिन यह श्रृंखला लिखते समय, एक बात का ध्यान नहीं था।


 

 

हार्पर ली का चित्र - दाना मिक्सर द्वारा - न्यू यॉर्क टाइमस् के लिये

‘अरे, उन्मुक्त जी आप तो विस्तार से चर्चा करते हैं। फिर आपसे क्या छूट गया?’

मुझे मालुम था कि यह पुस्तक १९६० में लिखी गयी थी। यह साल इसके प्रकाशन की पच्चासिवीं वर्षगांठ है। बस यह बात ध्यान में नहीं रही। कुछ दिन पहले न्यू यॉर्क टाइमस् में यह लेख पढ़ा तब पता चला कि इसी कारण इस साल, गर्मियों के बाद अमेरिका में जगह जगह समारोह हो रहें हैं।

‘उन्मुक्त जी, यह पुस्तक भारत में भी पढ़ी जाती है।  तो क्या इसके प्रकाशक (हार्पर एण्ड कॉलिंस्) भारत में भी कोई समारोह करेंगे?’

मेरे बचपन में यह काफी पढ़ी जाती थी। इसी कारण मैंने पढ़ी थी और फिल्म देखी थी। मुझे नयी पीढ़ी के लोगों से बात करना अच्छा लगता है। मैं अक्सर विद्यालयों,  विश्विद्यालयोंं में जाता हूं। वहां विद्यार्थियों से बात करता हूं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह पुस्तक अब पढ़ी जाती है। हांलाकि किताबों की दुकानों में दिखायी पड़ती है। इसलिये मुझे नहीं लगता कि इस तरह का कोई समारोह होगा।

‘उन्मुक्त जी, आपको क्या लगता है कि क्या किसी हिन्दी की पुस्तक के लिये ऐसा कभी होगा? क्या इस तरह के सम्मान के लिये हिन्दी साहित्य में कोई पुस्तक है?’

मुझे नहीं मालुम। कम से कम मैंने नहीं पढ़ी या प्रेमचन्द की लिखी कोई पुस्तक हो। हां, शायद भारतीय भाषा साहित्य में शायद कुछ इस तरह की पुस्तकें हों।

  • शरद साहित्य, या
  • प्रथम प्रतिश्रुति, या
  • शायद कोई और

लेकिन मुझे तो लगता है कि अपने देश में इस तरह से समारोह मनाने का कोई रिवाज़ नहीं है। बस इसलिये यह नहीं होता है। हम सब सरकार की तरफ देखते रहते हैं कि वह कुछ करे। और सरकार के अपने सिद्धान्त हैं ,नियम हैं।

हम हर कार्य के लिये सरकार की तरफ क्यों देखते हैं। खुद क्यों नहीं पहल करते। यह बदलना चाहिये। क्या कभी कुछ बदलेगा?

अरे, आप इस श्रंखला को तो पढ़ना चाहेंगे। इसमें कोई मुश्किल नहीं। बस नीचे लिखी कड़ियों में चटका लगा कर आसानी से पढ़ सकते हैं। यदि सुनना चाहें तो ► पर चटका लगा कर सुन सकते हैं। ख्याल रहे ऑडियो क्लिप ऑग मानक में है। इसे कैसे सुनते हैं यह तो मालुम हैं न। नहीं तो दाहिने तरफ का विज़िट ‘बकबक पर पॉडकास्ट कैसे सुने‘ देखें।

इस फिल्म में से कुछ भावपूर्ण दृश्य

लेकिन मैं अभी तक नहीं समझ पाया कि मुझे इसी साल क्यों यह श्रृंखला लिखने की प्रेणना मिली।

इस चिट्ठी के दोनो चित्र न्यू यॉर्क टाइमस् के सौजन्य से

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यह पॉडकास्ट ogg फॉरमैट में है। यदि सुनने में मुश्किल हो तो दाहिने तरफ का विज़िट,
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के बारे में उन्मुक्त
मैं हूं उन्मुक्त - हिन्दुस्तान के एक कोने से एक आम भारतीय। मैं हिन्दी मे तीन चिट्ठे लिखता हूं - उन्मुक्त, ' छुट-पुट', और ' लेख'। मैं एक पॉडकास्ट भी ' बकबक' नाम से करता हूं। मेरी पत्नी शुभा अध्यापिका है। वह भी एक चिट्ठा ' मुन्ने के बापू' के नाम से ब्लॉगर पर लिखती है। कुछ समय पहले,  १९ नवम्बर २००६ में, 'द टेलीग्राफ' समाचारपत्र में 'Hitchhiking through a non-English language blog galaxy' नाम से लेख छपा था। इसमें भारतीय भाषा के चिट्ठों का इतिहास, इसकी विविधता, और परिपक्वत्ता की चर्चा थी। इसमें कुछ सूचना हमारे में बारे में भी है, जिसमें कुछ त्रुटियां हैं। इसको ठीक करते हुऐ मेरी पत्नी शुभा ने एक चिट्ठी 'भारतीय भाषाओं के चिट्ठे जगत की सैर' नाम से प्रकाशित की है। इस चिट्ठी हमारे बारे में सारी सूचना है। इसमें यह भी स्पष्ट है कि हम क्यों अज्ञात रूप में चिट्टाकारी करते हैं और इन चिट्ठों का क्या उद्देश्य है। मेरा बेटा मुन्ना वा उसकी पत्नी परी, विदेश में विज्ञान पर शोद्ध करते हैं। मेरे तीनों चिट्ठों एवं पॉडकास्ट की सामग्री तथा मेरे द्वारा खींचे गये चित्र (दूसरी जगह से लिये गये चित्रों में लिंक दी है) क्रिएटिव कॉमनस् शून्य (Creative Commons-0 1.0) लाईसेन्स के अन्तर्गत है। इसमें लेखक कोई भी अधिकार अपने पास नहीं रखता है। अथार्त, मेरे तीनो चिट्ठों, पॉडकास्ट फीड एग्रेगेटर की सारी चिट्ठियां, कौपी-लेफ्टेड हैं या इसे कहने का बेहतर तरीका होगा कि वे कॉपीराइट के झंझट मुक्त हैं। आपको इनका किसी प्रकार से प्रयोग वा संशोधन करने की स्वतंत्रता है। मुझे प्रसन्नता होगी यदि आप ऐसा करते समय इसका श्रेय मुझे (यानि कि उन्मुक्त को), या फिर मेरी उस चिट्ठी/ पॉडकास्ट से लिंक दे दें। मुझसे समपर्क का पता यह है।

3 Responses to अरे, यह तो मेरे ध्यान में था ही नहीं

  1. कभी कभी बहुत महत्वपूर्ण चीजें ध्यान से निकल जाती हैं।

  2. arvind mishra says:

    उन्मुक्त जी, अब आपने यह बात आज कही, जो मैं आपसे कल ही कहने वाला था !
    रीडर्स डाइजेस्ट के मई माह के अंक में इस प्रेरणास्पद पुस्तक के ५०वे वर्ष पर एक आलेख छपा है – पढ़ते ही, मुझे आपकी याद आयी और आपके लिखे आलेख की …
    अद्भुत संयोग है की पचासवें वर्ष पर ही आपको इस पुस्तक की याद किस प्रेरणा से हो आयी …
    कोई दैवीय प्रेरणा? ओह आप तो अज्ञेयवादी हैं और मैं आपके पीछे चलने वाला …
    तब यह कैसे हुआ?

    अरविन्द जी, मैं लगभग १५ पत्रिकायें लेता हूं। इनमें रीडर्स् डाडजेस्ट भी एक है। मेरे पास मई का अंक आ गया था पर समयाभाव के कारण न देख पाया था। आज आपकी टिप्पणी के बाद देखा।
    मुझे प्रसन्नता होगी यदि हम लोग हिन्दी की उत्कृष्ट रचनाओं का जिक्र करें ताकि लोगों को उनके बारे में पता चल सके।
    मैंने डार्विन की श्रृंखला कुछ शास्त्री जी और कुछ आपकी प्रेणना से लिखी। लेकिन यह श्रृंखला बस लिख दी। बहुत सी बातों का कोई हल समझ में नहीं आता। शायद, इसी लिये लोग उसे दैवीय प्रेणना कह देते हैं – उन्मुक्त।

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