सैकड़ों वर्ष पहले के इंजीनियर ही बेहतर थे

श्री अनुपम मिश्र गांधी पीस फाउंडेशन (Gandhi Peace Foundation) की नींव डालने वाले सदस्यों में हैं। वे राजस्थान में पानी संचय के बारे में बात करते हैं। उन्होंने ‘राजस्थान की रजत बूंदे’ नामक पुस्तक लिखी है। इसे गांधी शांति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली ने छापा है।

कुछ समय पहले ‘टेड आइडियआस् वर्थ स्परैडिंग’ (TED Ideas Worth Spreading) में,  अनुपम जी का भाषण सुनने को मिला। इसमें वे बताते हैं कि किस तरह  से सैकड़ों वर्ष पहले, भारतवासियों ने रेगिस्तान में, पानी संचय करने के तरीके निकाले। यह तरीके आजकल के कड़ोरों रुपये खर्च कर बनाये गये पानी संचय करने के तरीकों से कहीं बेहतर हैं। Read more of this post

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लगता है कि साइकिल चलाने का चस्का बढ़ेगा

यह चित्र मैसाचुसेटस् इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी की वेबसाइट से।

‘उन्मुक्त जी, आप यह इसलिये कह रहे हैं क्योंकि आप साइकिल प्रेमी हैं।’

यह सच है कि मैं साइकिल प्रेमी हूं और कई काम साइकिल पर ही करता हूं। मैंने अपने साइकिल प्रेम के बारे में पहले भी लिखा है। लेकिन यह बात मैं अपने साईकिल प्रेम के कारण नहीं पर कोपेनहेगन व्हील के कारण कह रहा हूं। मैं यह भी सोचता हूं कि साइकिल चलाना, अपनी पृथ्वी मां की धरोहर को बचा रखने में सहायक है।

‘कोपेनहेगन व्हील!! यह क्या बला है?’ Read more of this post

गौरैया को कैसे बचायें?

हैमलेट (Hamlet) में, विलियम शेक्सपीयर (William Shakespeare) ने लिखा,

‘Not a whit, we defy augury; there’s a special providence in the fall of a sparrow. If it be now, ’tis not to come; if it be not to come, it will be now; if it be not now, yet it will come: the readiness is all.’ act 5, sc. 2, l. 165-8 (1604)

सब कुछ ईश्वर की इच्छा पर चलता है। वही सब पर कृपा दृष्टि रखता है पर लगता है कि यदि गौरेया (sparrow) के लिये विशेष कृपा नहीं की गयी तो वे हम सब के कारण हमेशा के लिये समाप्त हो जायेंगी।

१२ मई की ऑउटलुक इंडिया में The fall of a sparrow नाम का एक लेख छपा था। इसमें कारण बताये गये हैं कि गौरैयाएं क्यों समाप्त हो रहीं हैं। इस पर ममता जी ने एक चिट्ठी लिखी थी। इसके पहले अनिल जी ने भी एक चिट्ठी लिखी थी। अंग्रेजी में भी यहां और यहां चिट्ठियां लिखी गयीं पर सवाल यह है कि उन्हें बचाने के लिये क्या किया जाय?

‘उन्मुक्त जी, क्या आपको मालुम है कि क्या किया जा सकता है। जल्दी बताइये ताकि हम भी कुछ कर सकें।’

मैं नहीं जानता कि क्या किया जा सकता है पर मैं जो करता हूं वह यहां लिख रहा हूं। आप भी करके देखिये। यह उन्हें बचाने में मदद करेगा। यदि आपके पास कोई और सुझाव हो तो बतायें।

मुन्ने की मां ने कई साल अमेरिका में पढ़ाया है। एक बार वह वहां से बर्ड फीडर ले आयी। यह बेलन के आकार का है। इसमें अलग अलग उंचाई पर छेद हैं। इसके अन्दर हम लोग चिड़ियों के खाने के लिये काकुन रखते हैं। चिड़ियाएं, छेद में चोंच डाल कर काकुन खा सकती हैं। इसका सबसे अच्छा फायदा है कि काकुन, पानी बरसने पर बहता नहीं और न ही आंधी में उड़ता है।

चिड़ियों के काकुन खाने के बाद उसका छिलका नीचे की ट्रे में गिर जाता है। इसे हमने लगभग ८-९ साल पहले लगाया था। उस समय चिड़ियाओं को, कुछ समय, यह समझने में लगा कि काकुन कैसे खाया जाय पर अब बहुत मज़े में खाती हैं। यहां पर तरह की तरह चिड़ियाएं आती हैं। इसके बगल में चिड़ियों के लिये पानी का बर्तन भी पेड़ से टंगा है।


गौरेया के लिये, कीड़ों का इंतजाम करना मुश्किल है। हांलाकि मुन्ने ने अमेरिका में दो मकड़े पाल रखें हैं उनके लिये वह हफ्ते में एक दिन उनके लिये कीड़े खरीद कर लाता है। यहां दुकान में काकुन तो मिल जाता है पर मैं नहीं जानता की वह कीड़े कहां से खरीदे कर लाऊं जो गौरैयाएं खाती हैं।

हम लोगो ने घर और पेड़ों पर, जगह, जगह गुल्लक में छेद करके टांग रखें हैं। इसमें बहुत सी चिड़ियों ने अपना घोसला बना रखा है। मैं नहीं जानता कि यह गौरैया या अन्य चिड़ियों को बचाने में सफल होगा कि नहीं पर यदि हम सब ऐसा अपने अपने घर में करें तो अवश्य इसका फल अच्छा होगा।

मैंने, अपने और मुन्ने के बचपन में बहुत सी चिड़ियां, पैराकीट पिंजड़े में बन्द करके पाले थे। अब लगता है कि वह सब गलत था इसी तरह से चिड़ियाओं का शौक रखना चाहिये था।

चलते चलते, ऑउटलुक इंडिया के लेख के शीर्षक से जुड़ी एक बात।

सलीम अली (Salim Ali) प्रसिद्ध पक्षी विज्ञान वेत्ता थे। उन्होंने अपनी आत्म जीवनी The fall of a sparrow नाम से लिखी है। यह पुस्तक भी पढ़ने योग्य है।

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(सुनने के लिये चिन्ह शीर्षक के बाद लगे चिन्ह ► पर चटका लगायें यह आपको इस फाइल के पेज पर ले जायगा। उसके बाद जहां Download और उसके बाद फाइल का नाम अंग्रेजी में लिखा है वहां चटका लगायें।: Click on the symbol ► after the heading. This will take you to the page where file is. Click where ‘Download’ and there after name of the file is written.)

यह ऑडियो फइलें ogg फॉरमैट में है। इस फॉरमैट की फाईलों को आप –

  • Windows पर कम से कम Audacity, MPlayer, VLC media player, एवं Winamp में;
  • Mac-OX पर कम से कम Audacity, Mplayer एवं VLC में; और
  • Linux पर सभी प्रोग्रामो में – सुन सकते हैं।

बताये गये चिन्ह पर चटका लगायें या फिर डाउनलोड कर ऊपर बताये प्रोग्राम में सुने या इन प्रोग्रामों मे से किसी एक को अपने कंप्यूटर में डिफॉल्ट में कर लें।

extinction, Environmentalism, पर्यावरण,

यह जीव विज्ञान और पर्यायवरण की शताब्दी है

बीसवीं शताब्दी भौतिक शास्त्रियों की थी। यदि आप में दुनिया बदलने की दम-खम थी, आप दुनिया बदलना चाहते थे तो आपका विषय था – भौतिक शास्त्र। पिछली शताब्दी के बेहतरीन मस्तिष्क वालों ने इसी विषय पर काम करना पसन्द किया पर इस शताब्दी के समाप्त होते होते ही, यह बदल गया। इक्कीसिवीं शताब्दी है जीव वैज्ञानिकों की, पर्यावरणविदियों की।

मैंने उच्च शिक्षा १९६० के दशक में ली – भौतिक शास्त्री बनने के सपने देखे। ईश्वर तो कुछ और ही चाहते थे – मैं फाइलें ईधर उधर पलटने वाला बन गया। विद्यार्थी जीवन में विज्ञान की अच्छी पत्रिका साईंटिफ्कि अमेरिकन (Scientific American) आया करती थी। मैं उसका नियमित ग्राहक था। विज्ञान विषय छोड़ते के बाद, मैंने विज्ञान से संबन्ध तो रखा पर इस पत्रिका को लेना बन्द कर दिया। इसे अमेरिका से मंगवाना पड़ता था – १९६० के दशक में न केवल यह मंहगा था पर मुश्किल भी।

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कुछ सालों से साईंटिफ्कि अमेरिकन पत्रिका अब भारत में निकलने लगी है। मैं इसके भारत में निकलने के समय से ही इसका नियमित ग्राहक हूं और इसमें निकलने वाले लेखों में अन्तर देखता हूं। अब काफी लेख जीव विज्ञान और पर्यावरण पर होते हैं।

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अपने देश में, इस समय दो अन्य पत्रिकायें पर्यावरण पर निकल रहीं हैं।

मैं इन दोनो पत्रिकाओं का भी नियमित ग्राहक हूं।

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यह तीनो अच्छी पत्रिकायें हैं। यदि आपको इन विषयों पर रुचि है तो इनके ग्राहक बने। यहां मैं इतना कहना चाहूंगा कि साईंटिफ्कि अमेरिकन के लिये विज्ञान का कुछ ज्ञान होना जरूरी है। डाउन टू अर्थ तथा टॅराग्रीन में भी इन विषयों का कुछ ज्ञान जरूरी है पर साईंटिफ्कि अमेरिकन के बराबर नहीं। डाउन टू अर्थ तथा टॅराग्रीन में, मुझे डाउन टू अर्थ ज्यादा पसन्द आती है।

पर्यावरण विषय तो हिन्दी चिट्ठाकारी से भी नहीं अछूता है। इस पर दो चिट्ठे भी हैं एक है पर्यावरण डाइजेस्ट, जो कि सन् १९८७ से निरंतर प्रकाशित, पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक है; दूसरा है पर्यानाद्। इन दोनो चिट्ठों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता है। इन पर भी नज़र डालते चलिये।
हमें भूलना नहीं चाहिये,

यह पृथ्वी मां हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है,
इसे हमने अपनी अगली पीढ़ी से उधार ले रखा है।
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